माननीय अध्यक्ष महोदय, गुरुजनों और मेरे प्रिय साथियों!
भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम। इसमें ब्रह्मचर्य आश्रम विद्यार्थी जीवन का ही दूसरा नाम है। इस अवधि में विद्यार्थी ज्ञानोपार्जन करता है।
यही समय बालक की आधारशिला को मज़बूत बनाता है। जिस बालक की नींव मजबूत होगी, उस बालक का भावी जीवन अत्यंत सुंदर होगा। प्राचीन काल में बालक इस अवधि में अपने गुरु के संरक्षण में रहकर अपने भावी जीवन को संवारता था।
मित्रों! विद्यार्थी काल मनुष्य के निर्माण का काल है। यह जीवन बहुत सुंदर तथा नाजुक होता है। यह समय एक नन्हें बढ़ते हुए पौधे के समान है, जिसे चाहे जिधर मोड़ सकते हैं। यदि हम वास्तव में अपना भविष्य उज्जवल बनाना चाहते हैं तो विद्यार्थी जीवन में बना सकते हैं।
इस समय विद्यार्थी को दो ही काम होते हैं - अपने स्वास्थ्य का निर्माण करना तथा विद्या-अध्ययन करना। इस समय विद्यार्थी सांसारिक चिंताओं से मुक्त होता है। उसका उद्देश्य केवल पढ़ना ही होता है। वह अध्ययन द्वारा अपने मस्तिष्क का विकास करके आगे बढ़ता है।
प्रत्येक विद्यार्थी पर उसके देश और समाज की उन्नति निर्भर होती है। विद्यार्थी सद्भावना और उच्च गुणों के द्वारा अपने देश की सामाजिक कुप्रथाओं और धार्मिक ढकोसलों का अंत कर सकते हैं। वे अपनी बुद्धि के द्वारा राजनैतिक और औद्योगिक उन्नति कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि वे अपने को इस प्रकार योग्य बनाएं कि उन्हें जीवन में कभी किसी का आश्रय लेने के लिए मुंह न ताकना पड़े।
साथियों! विद्यार्थी को सर्वप्रथम कठोर परिश्रमी होना चाहिए। उसमें अपने अध्ययन में समूची लगन तथा एकाग्रचित्त होना अत्यंत आवश्यक है। उसे कठिन कामों से घबराना नहीं चाहिए। जिस विधि से भी उसे ज्ञान प्राप्त होता हो उसके लिए उसे हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
जहां कहीं भी उसे ज्ञान का स्रोत दृष्टिगोचर हो, वहां पहुंचने में वह कभी भी आलस्य न करे। वह हमेशा अपने ज्ञान-भंडार को भरने के प्रयत्न में लगा रहे। वह समय बर्बाद करने वाला न हो, अपितु समय का मूल्य आंकने वाला हो।
विद्यार्थी को सदैव प्रात: काल उठना चाहिए। सवेरे ही उसे पढ़ने में व्यस्त हो जाना चाहिए। जो पाठ विद्यालय में पढ़ाया जाए, उसे नित्य ही याद कर लेना चाहिए। आज का काम कल पर कभी नहीं छोड़ना चाहिए। कक्षा में हमेशा एकाग्रचित्त होकर अध्यापक का व्याख्यान सुनना चाहिए। ध्यान से न सुनने पर वह उस पाठ को कभी भी याद नहीं कर सकता।
विद्यार्थी के लिए जरूरी है कि वह सच्चरित्र हो। यही समय उसके बनने-बिगड़ने का होता है। अतः अपने चरित्र का अत्यधिक ध्यान देना आवश्यक है। श्रेष्ठ चरित्र के लिए विद्यार्थी को अपने पर संयम रखना चाहिए। अपने चंचल मन पर उसका पूरा अधिकार होना चाहिए।
जो विद्यार्थी अपने मन को नियंत्रित नहीं कर सकता, वह कभी भी विद्या प्राप्त नहीं कर सकता। जो विद्यार्थी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर सिनेमा, शतरंज, मेला, तमाशा देखने दौड़ेगा, वह कभी पढ़ नहीं सकेगा। इसलिए इस समय उसे हमेशा इन कार्यों से परे रहना चाहिए। इस समय उसे सादा रहना चाहिए।
विद्यार्थी को विनम्र और मधुरभाषी होना चाहिए। विद्या ही मनुष्य नम्र बनाती है। मधुर भाषण और विनम्रता के द्वारा मनुष्य सारे संसार को अपने वश में कर सकता है। इसी गुण के द्वारा वह अपने अध्यापकों के स्नेह और कृपा का पात्र हो जाता है। अध्यापकों की कृपा से वह कठिन-से-कठिन विषयों को आसानी से समझ सकता है।
विनय और नम्रता आदर्श विद्यार्थियों के अस्त्र हैं जिनके बल से वे अपने जीवन रूपी संग्राम में विजय प्राप्त कर सकते हैं। जिस प्रकार फल से युक्त वृक्ष अपने आप झुक जाते है, उसी प्रकार विद्या से युक्त व्यक्ति स्वयं ही नम्र होता है। वह अनपढ़ के सामान अकड़ा हुआ नहीं होता। अपनी गलती को सहर्ष स्वीकार करना, उसमें सुधार करना और गलती होने पर बड़ों के सामने खेद प्रकट करना, यही आदर्श विद्यार्थी की पहचान है।
साथियों! विद्यार्थी में आज्ञापालन का भी गुण होना नितांत आवश्यक है। उसे अपने अध्यापकों की आज्ञा का पालन करना चाहिए। वह अध्यापकों को अपने माता-पिता के समान समझे। आज्ञाकारी विद्यार्थी से सभी अध्यापक प्रसन्न रहते हैं। वे बड़े प्यार से उस छात्र के साथ संपूर्ण सहानुभूति जताते हैं।
विद्यार्थियों को अपने अध्यापक के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखना चाहिए। अध्यापकों का कभी भी मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए। जो विद्यार्थी अपने अध्यापकों का अपमान करता है तथा मज़ाक उड़ाता है, उसे कल्याण और श्रेय कभी नहीं मिल सकता। उसका जीवन सदैव संकटो और विपत्तियों से घिरा रहता है।
विद्यार्थी में नई-नई बातें सीखने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए। उसके हृदय में हमेशा ज्ञान की पिपासा बनी रहनी चाहिए। ऐसा विद्यार्थी ही संसार में उन्नति प्राप्त कर सकता है। विद्यार्थी को सदैव सादा जीवन व्यतीत करना आवश्यक है। उसे अपने विचारों को ऊंचा रखना चाहिए।
विद्यार्थी के लिए स्वस्थ रहना अत्यंत आवश्यक है। विद्या ग्रहण करने में कठोर परिश्रम करना पड़ता है, इसलिए उसे सदा प्रसन्न और स्वस्थ रहना चाहिए। इसके लिए उसे खेल और व्यायाम में भी रुचि रखनी चाहिए। खेलने से मस्तिष्क की थकावट दूर हो जाती है। रात-दिन किताबी कीड़ा बनकर पुस्तकों से चिपक कर नहीं रहना चाहिए। इससे स्वास्थ्य की हानि होती है और विद्यार्थी भयंकर रोगों का शिकार हो जाते हैं।
मित्रों! देश की उन्नति के लिए विद्यार्थी में कड़ी मेहनत, दूरदर्शिता, कठोर अनुशासन, सेवा, योग्यता, सच्चरित्रता, वीरता आदि आदर्श गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है। उसको अध्यवसायी होना चाहिए। इस काल में विद्यार्थी को अपनी सारी शक्तियां लगाकर भावी जीवन को सफल और सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
बुरी आदतों, खोटी संगति और आलस्य प्रमोद से बचकर अच्छी बातें हृदयंगम करनी चाहिए। उसे तन्मयता के साथ विद्याध्ययन करना चाहिए, तभी उसका और उसके देश का कल्याण एवं अभ्युदय होगा।
साथियों! समय कम है और विषय गहरा है। अतः आज मैं इतना ही कहकर अपनी बात समाप्त करता हूं। आपने मेरे विचारों को इतने ध्यानपूर्वक सुना इसके लिए मैं अनुगृहित हूं।
धन्यवाद!